राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की 5 कविताएं

वैसी कविता जो मन को आंदोलित कर दे और उसकी गूंज सालों तक सुनाई दे. ऐसा बहुत ही कम हिन्दी कविताओं में देखने को मिलता है. कुछ कवि जनकवि होते हैं तो कुछ को राष्ट्रकवि का दर्जा मिलता है मगर एक कवि राष्ट्रकवि भी हो और जनकवि, यह इज्जत बहुत ही कम कवियों को नसीब हो पाती है. रामधारी सिंह दिनकर ऐसे ही कवियों में से एक हैं जिनकी कविताएं किसी अनपढ़ किसान को भी उतना ही पसंद है जितना कि उन पर रिसर्च करने वाले स्कॉलर को.
दिनकर की कविता इस समय भी उतनी ही प्रासंगिक मालूम होती है, जितनी कि उस दौर में जब वह लिखी गई थी. समय भले ही बदल हो लेकिन परिस्थितियां अभी भी वैसी ही हैं. दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार राज्य में बेगूसराय जिले के सिमरिया ग्राम में हुआ था. उनकी प्रसिद्ध रचनाएं उर्वशी, रश्मिरथी, रेणुका, संस्कृति के चार अध्याय, हुंकार, सामधेनी, नीम के पत्ते हैं. उनकी मृत्यु 24 अप्रैल 1974 को हुई थी. पेश हैं उनकी 5 कविताएं.
1. कलम, आज उनकी जय बोल 
जला अस्थियाँ बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल. 

जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल.

पीकर जिनकी लाल शिखाएँ
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल.

अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल
कलम, आज उनकी जय बोल.

2. हमारे कृषक

जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है 
छूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं है 

मुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं है 
वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है 

बैलों के ये बंधू वर्ष भर क्या जाने कैसे जीते हैं 
बंधी जीभ, आँखें विषम गम खा शायद आँसू पीते हैं 

पर शिशु का क्या, सीख न पाया अभी जो आँसू पीना 
चूस-चूस सूखा स्तन माँ का, सो जाता रो-विलप नगीना 

विवश देखती माँ आँचल से नन्ही तड़प उड़ जाती 
अपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छाती 

कब्र-कब्र में अबोध बालकों की भूखी हड्डी रोती है 
दूध-दूध की कदम-कदम पर सारी रात होती है 

दूध-दूध औ वत्स मंदिरों में बहरे पाषान यहाँ है 
दूध-दूध तारे बोलो इन बच्चों के भगवान कहाँ हैं 

दूध-दूध गंगा तू ही अपनी पानी को दूध बना दे 
दूध-दूध उफ कोई है तो इन भूखे मुर्दों को जरा मना दे 

दूध-दूध दुनिया सोती है लाऊँ दूध कहाँ किस घर से 
दूध-दूध हे देव गगन के कुछ बूँदें टपका अम्बर से 

हटो व्योम के, मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं 
दूध-दूध हे वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं.

3. भारत का यह रेशमी नगर 
भारत धूलों से भरा, आंसुओं से गीला, भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में. 
दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहल, पर, भटक रहा है सारा देश अँधेरे में.

रेशमी कलम से भाग्य-लेख लिखनेवालों, तुम भी अभाव से कभी ग्रस्त हो रोये हो?
बीमार किसी बच्चे की दवा जुटाने में, तुम भी क्या घर भर पेट बांधकर सोये हो?

असहाय किसानों की किस्मत को खेतों में, कया जल मे बह जाते देखा है?
क्या खाएंगे? यह सोच निराशा से पागल, बेचारों को नीरव रह जाते देखा है?

देखा है ग्रामों की अनेक रम्भाओं को, जिन की आभा पर धूल अभी तक छायी है?
रेशमी देह पर जिन अभागिनों की अब तक रेशम क्या? साड़ी सही नहीं चढ़ पायी है.

पर तुम नगरों के लाल, अमीरों के पुतले, क्यों व्यथा भाग्यहीनों की मन में लाओगे?
जलता हो सारा देश, किन्तु, होकर अधीर तुम दौड़-दौड़कर क्यों यह आग बुझाओगे?

चिन्ता हो भी क्यों तुम्हें, गांव के जलने से, दिल्ली में तो रोटियां नहीं कम होती हैं
धुलता न अश्रु-बुंदों से आंखों से काजल, गालों पर की धूलियां नहीं नम होती हैं.

जलते हैं तो ये गांव देश के जला करें, आराम नयी दिल्ली अपना कब छोड़ेगी?
या रक्खेगी मरघट में भी रेशमी महल, या आंधी की खाकर चपेट सब छोड़ेगी.

4. परशुराम की प्रतीक्षा
हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?
हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?

यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?
दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।
पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,
हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।

घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।

जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।

चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;

यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है।

है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ?
किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?
जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,
दैहिक बल को रहता यह देश ग़लत है.

नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,
कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में.
यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,
पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है.

ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?
अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो.
वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है.

जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है; 
है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं.

वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है.

तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,
लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है.
असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,
पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है.

तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,
किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में.
बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,
सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं.

पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?
तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,
है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा. 

जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,
शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,
कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें. 

कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,
आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,
सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,
हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें. 

हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो.
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,
है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?

हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !
जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !

जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;
तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,

रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा.
5. समर शेष है....
ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,
किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?
किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?

कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान. 

फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले !
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है .

मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार .

वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है 
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है 
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है 
माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है 

पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज 
सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज? 

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है? 
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है? 
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में? 
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में 

समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा 
और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा 

समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा 
जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा 
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं 
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं 

कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे 
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे 

समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो 
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो 
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे 
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे 

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर 
खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर 

समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं 
गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं 
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है 
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है 

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल 
विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल 

तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना 
सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना 
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे 
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे 

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध 
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध.

Comments

Popular posts from this blog

Significant information related to the Indus Valley civilization and facts

ZAPOTE BRIDGE

Create interested in politics Political Communications Careers